Thursday, March 6, 2008

भाई लोग,सादर वंदे!अपने ब्लाग का पहला ख़त आपकी नज़र कर रहा हूँ .सबसे पहले तो ये बताते हैं की हमने इस ब्लॉग का नाम दो रुपये किलो' क्यों रखा .भई सीधी सी बात है की हम जैसे बेहूदा शायरों की नामाकूल शायरी को कोई भी रद्दी वाला दो रुपये किलो से ज्यादा नहीं देने वाला,इसीलिए सोचा की अपने खयालात की औकात के मुताबिक उसका नामकरण हो...बस नाम रख दिया'दो रुपये किलो'...चलिए जनाब पेश है हमारी पहली खब्त...
कोई शिकवा ना शिकायत है
बेसबब रूठना मेरी आदत है।

धुप से बहार की रंजिश हुई,
नए फूलों की फ़िर शामत है.

धुप में उड़ गया खारा पानी
इस मौसम में कुछ राहत है।

दिल का बचपन बीता नहीं,
तुझे चाहना नई शरारत है।

तुझे याद नहीं,मैं भूलता नहीं,
मेरे जैसी ही तेरी हालत है।

कचरे में पाया दोमिनो पिज्जा,
बूढे पागल की,बड़ी दावत है।

....आज के लिए इतना ही,कल takके लिए...खुदा हाफिज़-ऋषि upaadhyaay